Monday 11 March 2013

शिरोमणि



कई वर्ष बीत गए। दुबारा उससे मुलाक़ात नहीं हुई ।  आज वो अचानक हमारे घर आया था । उसको देख मेरे आश्चर्य की सीमा न रही । जिसको मै देखा करती थी या जो उसके विषय मे कल्पना की थी। वह उससे एकदम  अलग था ।  वो व्हील चेयर  पर बैठा था उसका ड्राइवर  दरवाजे तक छोड़ गया था। मै पहले तो उसे पहचान ही नहीं पाई थी उसने अपना परिचय दिया -" दीदी मै शिरोमणि ! अंदर नहीं बुलाएंगी।" मैने कहा -" हाँ हाँ आओ अंदर आओ प्लीज़ । " और वह अपने हाथ से व्हील चेयर को धकेलता हुआ अंदर आ गया , मैंने उसकी चेयर पकड़ी -" लाओ मै ले चलूँ ।"  वो बड़े ही आत्म विश्वास से बोला - "नहीं दीदी , मै कर लूँगा । " और वह अपने आप ही अंदर तक आया । मै एक पल को अतीत मे खो सी गई ।
पतंग की डोर हाथ मे पकड़े सात आठ साल का वो बालक अपनी धुन मे भागा जा रहा था।  इधर उधर की कोई खबर न थी। बस उसकी निगाहें अपनी पतंग पर ही टिकी थी । कोई बड़े ज़ोर चिल्लाया - "क्या कर रहा है मरेगा क्या ?" तब वह आसमान से धरातल मे आया , सामने देखा गाड़ी वाला हार्न बजा रहा था और  उसने खुद को सड़क के  बीचोंबीच  खड़ा पाया । फुर्ती से किनारे हुआ और झट से उन गाड़ी वाले अंकल से क्षमा मांगी । वो ऐसा ही था अपनी धुन का पक्का , जिस काम को पकड़ता उस काम मे पूरी तरह रम जाता । चाहे खेल हो या पढ़ाई या घर मे माँ का हाथ बटाना हो या फिर दोस्तों के साथ मस्ती करना। अपने सभी भाई बहनों में सबसे ज्यादा होशियार और चंचल था वो ।  उसके माता पिता उससे हमेशा खुश रहते । उसके पिता अक्सर कहते देखना - "मेरा शिरोमणि एक दिन मेरा नाम अवश्य ऊंचा करेगा लोग मुझे शिरोमणि के बाप के रुप मे जानेंगे ।" और ऐसा कहते वक्त उनकी गर्दन गर्व से तन जाया करती चेहरे पर अव्यक्त खुशी झलक जाती । जिसका अहसास केवल शिरोमणि ही कर  पाता या उसकी माँ  । उसकी माँ रत्ना देवी बड़ी मेहनतकश महिला थीं । खाली बैठने से उन्हे सख्त चिढ़ थी । वे कम पढ़ी लिखी थी किन्तु किसी भी पढे लिखे से कम न थी । हर काम मे वे दक्ष थीं,  इतनी सधी और सटीक बात कहती कि उनके आगे बड़े बड़े झुक जाया करते । उन्होने अपने सभी बच्चों को भरपूर प्यार और संस्कार दिये थे । तभी तो सभी बच्चे बड़े ही सौम्य और सुसंस्कृत थे । 


फोटो गूगल से साभार

 मेरी जब शिरोमणि से मुलाक़ात हुई तब वह चार पाँच वर्ष का रहा होगा । वह उस विद्यालय मे पढ़ता था जहां मेरी नियुक्ति हुई थी । उस समय वह पहली कक्षा का छात्र था । मै जिस कालोनी मे रहती थी वहाँ से उसका घर थोड़ी ही दूरी पर था । इसलिए वह शाम को अक्सर मेरे पास भाग आता -" दीदी मुझे आपसे कुछ पूछना है ।" और आकर वह मेरे पास से जाना ही न चाहता । मोहन मणि, उसका बड़ा भाई जब उसे बुलाने आता तब भी वह बड़ी न नुकुर के बाद ही वह जाता । सच इतना मेधावी बालक  देख मुझे हैरानी होती। जो पढ़ने के लिए इतनी जिद करता था । एक दो बार मेरी उनकी माँ से मुलाक़ात हुई तब मैंने जाना कि बच्चा माँ जैसा ही है । वो कक्षा चार मे था जब मैंने विद्यालय छोड़ा । उस दिन वो बहुत रोया । मेरे लिए उसको समझाना बड़ा मुश्किल हो रहा था । मैंने उसे अपने नए घर का पता दिया और उससे कहा जब तुम्हारा मन हो मिलने आ जाना । थोड़ी बहुत औपचारिक बातों के बाद मैंने पूछा - " मणि ( मै उसे मणि कहा करती थी ) ये सब कैसे हुआ क्या कोई एक्सीडेंट ! " कुछ देर चुप रहा वो फिर बोला - " क्या बताऊँ दीदी आपके वहाँ से चले आने के बाद कुछ दिन तो मेरा उस स्कूल मे मन ही नहीं लगा , माँ के समझाने के बाद किसी तरह मै वापस लौट पाया । सातवीं कक्षा मे था माँ का स्वर्गवास हो गया और उनकी मृत्यु ने हम सबको तोड़ कर रख दिया हम पर मानो दुःखों का पहाड़ ही टूट पड़ा । पिताजी भी बीमार रहने लगे । बड़े भैया की  कैलिफोर्निया मे  नौकरी लग गयी थी वे चले गए अब घर पर  दीदी और मेरा छोटा भाई बचे । पैसे की कमी बड़े भैया कभी होने नही देते थे तो हमारी पढ़ाई अच्छे से हो गई दीदी की शादी होनी थी , पिताजी  कही जा नहीं सकते थे इसलिए बड़े भैया ने लड़का देखने की जिम्मेवारी मेरे ऊपर डाल दी थी । पर दीदी की शादी से पहले भैया की शादी तय हो गई , भैया ने शर्त रखी कि वे पहले बहन की शादी करवाएँ या इंतजार करें । लड़की वालों ने सोचा कि लड़का अच्छा है हाथ से निकल जाएगा इसलिए उन्होने बहन के लिए लड़का  खोजना शुरू कर दिया । जल्द ही दीदी  की शादी तय हो गई । भैया और दीदी दोनों की शादी एक ही हफ्ते मे दो दिन के अंतर पर हो गई । शादी के बाद दीदी ससुराल चली गई और भैया भाभी  को साथ लेकर चले गए । अब उनका फोन आना भी कम हो गया था हमारे फोन करने पर भाभी फोन उठातीं और बस दो चार बात करके फोन काट  देतीं भैया को कभी बताती भी या नहीं , मालूम नहीं । पिताजी को कैंसर हो गया था , वे भैया भाभी से मिलना चाहते थे । रोज उनकी तकलीफ देखकर मै भैया को फोन करता , पर भैया व्यस्तता के कारण न आ पाने की बात कहते और मुझे तमाम  बातें समझा देते । एक दिन पिताजी भी अपनी बीमारी से न लड़ सके और चल दिये सदा के लिए । अब मै अकेला रह गया किसे अपने मन की बात सुनाता । भैया दीदी आए भी मेरे विवाह की बात करने , लेकिन मै  कोई अच्छी नौकरी किए बिना विवाह नहीं करना चाहता था । सब थोड़ा बिगड़े और चल दिये अपने रास्ते । शादी के बाद भैया काफी बदल गए थे। उनका अपना परिवार हो गया था उसकी चिंता उन्हे पहले करनी थी । मै पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर एम बी ए करना चाहता था मैंने भैया से कहा उन्होने खुशी से  कहा - बिलकुल करो पर साथ ही कोई पार्ट टाइम जॉब भी कर लो तुम्हारा खर्च भी निकल आयेगा । मैंने उनकी बात मान ली नौकरी ढूढ़ने लगा। एक मल्टीनेशनल कंपनी मे पार्ट टाइम जॉब मिल गयी । मै बड़ी खुशी से कई सपने बुनते हुए  घर की तरफ आ ही रहा था कि एक तेज रफ्तार कार ने जोरदार टक्कर मारी मै उछल  कर गिरने तक होश मे था। फिर मुझे याद नहीं कि क्या हुआ । मै अस्पताल मे था मेरे कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी दूसरे पाँव की हड्डी बीच से आधी  हो गई थी  । मेरे सारे सपने , सारी इच्छाए सब चकनाचूर हो गए थे । मेरे पिताजी का सपना चूर चूर हो गया था । मै बहुत रोया । माँ बाबू जी बहुत याद आए पर नियति के आगे झुकने के सिवा कोई रास्ता भी न था । भैया भाभी आए मिले और चले गए दीदी और जीजा जी अक्सर आ जाते पर वो भी कितना समय दे पाते । मेरा कष्ट तो जीवन भर का था । कूल्हे की हड्डी जुड़ गयी थी उठ कर बैठने मे छह महीने लगे , अब अगला कदम खड़े होने का था । यहाँ किस्मत ने धोखा दे दिया । दोनों टांगों मे ब्लड सर्कुलेशन जीरो हो गया था । काफी देखभाल और फिजिकल एकसरसाइज़ की जरूरत थी । दो वर्षों तक एकदम बिस्तर पर पड़े पड़े पागल सा हो गया था । एक नर्स जो मेरी देखभाल किया करती थी एकदिन उसने मुझसे प्रणय निवेदन किया । मैंने सोचा शायद मेरे पर तरस खाकर वह ऐसा कह रही है । मैंने उसे झिड़क दिया वो कुछ न बोली चुपचाप चली गई । कई दिनो तक वह मेरे कमरे मे न आई। डाक्टर से उसके विषय मे पूछा । डाक्टर ने बताया की वह परीक्षा देने अपने होम टाउन गई है , पढ़ाई की बात सुनकर मेरे मन मे हूक सी उठी मेरा भी मन किया कि  क्यो न यहाँ पड़े पड़े पढ़ाई कर ली जाए । मैंने डाक्टर से कहा कि क्या वे कुछ किताबों का इंतजाम कर देंगे। उन्होने तुरंत हाँ कर दी , एक वे ही मेरे सुख दुःख के साथी थे उन्होने ही पिताजी का भी इलाज किया था।  पिताजी के चले जाने के बाद उन्होने एक पिता कि तरह ही मेरी देखभाल की । मैंने कुछ किताबों के नाम लिख कर दे दिये उन्होने वे किताबे मँगवा दीं । मैंने पढ्ना शुरू कर दिया वही रह कर एम बी ए की तैयारी पूरी कर ली । सेहत मे भी सुधार आने लगा था क्योकि जब जीने की इक्षा हो तो सेहत भी सही रहने लगती है । डाक्टर अंकल ने फार्म भी भरवा दिया , अब मेरे अंदर जोश जाग उठा था । दुगनी लगन से पढ़ाई की और  परीक्षा पास कर ली उन्होने ही एक कंपनी मे इंटरव्यू करवाया विकलांग कोटे  से   जॉब मिल गयी । आज मै उस कंपनी का एम डी हूँ । कंपनी ने मुझे फ्लैट और गाड़ी भी दे रखी है । काफी कष्टों के बाद ये मुकाम पाया है । आज मै अपने जीवन मे संतुष्ट हूँ । "
मेरे पूछने पर कि शादी की कि नहीं तो वो बोला - " की न मारिया से,  वही नर्स । "
मुझे लगा कि सच मे वो " यथा नाम तथा गुण " की कहावत को चरितार्थ कर रहा है ।  
  

3 comments:

  1. अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति....

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  2. आपने तो समय बांध दिया जैसे ,भाव्पुरण सुंदर प्रस्तुति
    guzarish6688.blogspot.com

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